जिम्मेदारियां मजबूर कर देती हैं अपना शहर छोड़ने को,
वरना कौन अपनी गली मे
जीना नहीं चाहता.....
हसरतें आज भी खत लिखती हैं मुझे,
पर मैं अब पुराने पते पर नहीं रहता ।।
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शनिवार, 26 सितंबर 2015
जिम्मेदारियां मजबूर कर देती हैं
दोनो हाथ फैला दिये मैने ...
या खुदा
" तुझे देखते ही दोनो हाथ फैला
दिये मैने ...
नही जानता कि आखिर मै चाहता
क्या हूँ ..."
जिनकी नफ़रत से बुत भी लहूलुहान खड़े हैं।
जिनकी नफ़रत से बुत भी लहूलुहान खड़े हैं।
सुना है आज वो भी कुछ परेशान खड़े हैं॥
कहाँ छुपा के रख दूँ मैं अपने हिस्से की शराफत,
जिधर भी देखता हूँ उधर बेईमान खड़े हैं॥
क्या खूब तरक्की कर रहा है अब देश देखिये,
खेतों में बिल्डर, सड़क पर किसान खड़े हैं ॥
अब खुशी है न कोई ग़म रुलाने वाला
अब खुशी है न कोई ग़म रुलाने वाला
हमने अपना लिया हर रंग ज़माने वाला
हर बे-चेहरा सी उम्मीद है चेहरा चेहरा
जिस तरफ़ देखिए आने को है आने वाला
उसको रुखसत तो किया था मुझे मालूम न था
सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला
दूर के चांद को ढूंढ़ो न किसी आँचल में
ये उजाला नहीं आंगन में समाने वाला
इक मुसाफ़िर के सफ़र जैसी है सबकी दुनिया
कोई जल्दी में कोई देर में जाने वाला .
निदा फ़ाज़ली
उम्रकैद की तरह होते हैं कुछ रिश्ते,
उम्रकैद की तरह होते हैं कुछ रिश्ते,
जहाँ जमानत देकर भी रिहाई मुमकिन नहीं...
मैं दिया हूँ...
मैं दिया हूँ...
दुश्मनी तो सिर्फ़ अँधेरे से है मेरी...
हवा तो बेवजह ही मेरे खिलाफ़ है...!
कल तक जिनकी सुबह शाम
कल तक जिनकी सुबह शाम होती थी मेरे नाम से,
आज दरवाजे पे दस्तक दी तो पूछते हैं आप कौन ?